bhagwad geeta

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SHREEMAD BHAGWAD GEETA-(A Religious Volume)

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Daily Quotes in parts

Geeta 1

भगवद् गीता के सन्दर्भ में आपके प्रश्न का उत्तर:
भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अहंकार, सहनशीलता और कर्तव्य के विषय में विस्तार से चर्चा की है। यहाँ आपके द्वारा बताए गए स्थिति को गीता के कुछ प्रमुख श्लोकों से जोड़कर समझा सकते हैं:
अहंकार का त्याग (अध्याय 16, श्लोक 4)
श्रीकृष्ण ने बताया है कि अहंकार, घमंड, और दूसरों को दबाकर अपने को श्रेष्ठ समझने वाले लोग “आसुरी स्वभाव” के अंतर्गत आते हैं। ऐसे लोग केवल अपने स्वार्थ और अहंकार के कारण दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।
“दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥”
भावार्थ: अहंकार, दंभ, घमंड, और क्रोध असुरों के लक्षण हैं, और ऐसे लोग आत्मिक उन्नति से वंचित रहते हैं।
सहनशीलता और सीमाएँ (अध्याय 2, श्लोक 14)
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें सहनशील होना चाहिए, लेकिन जब कोई सीमा से बाहर जाने लगे और धर्म (कर्तव्य) का पालन न करे, तो उसे रोकना भी आवश्यक है।
“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥”
भावार्थ: सुख-दुख या मान-अपमान अस्थायी हैं। इन्हें सहन करना चाहिए, लेकिन जब सीमा पार हो जाती है और सत्य पर आंच आती है, तो उचित कदम उठाना धर्म है।
सच्चाई का प्राकट्य और सम्मान (अध्याय 3, श्लोक 21)
गीता कहती है कि व्यक्ति का आचरण और उसका व्यवहार ही उसे आदर या अपमान दिलाता है। अगर किसी की असलियत सबके सामने आ जाती है, तो उसका सम्मान प्रभावित होना स्वाभाविक है।
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥”
भावार्थ: लोग श्रेष्ठ व्यक्तियों का अनुसरण करते हैं। जब कोई अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होता है और उसमें दोष दिखते हैं, तो लोग उसका सम्मान कम कर देते हैं।
समाधान के लिए गीता की सलाह:
अपने कर्तव्य का पालन करें। अगर वह व्यक्ति अपने अहंकार में दूसरों को नुकसान पहुँचा रहा है, तो उसे सच का सामना कराना उचित है।
आपका संयम और धैर्य आपकी शक्ति है। लेकिन जब सत्य की बात हो, तो डरें नहीं और सही का साथ दें।
यदि वह व्यक्ति दूसरों को गुमराह कर रहा है, तो उसके असली स्वरूप को उजागर करना और उसे सही राह दिखाना भी एक प्रकार का धर्म है।
निष्कर्ष:
किसी का सम्मान उसकी सच्चाई और व्यवहार पर निर्भर करता है। यदि किसी की वास्तविकता लोगों के सामने आ गई है और उसके कारण उसका सम्मान कम हो गया है, तो यह स्वाभाविक है। गीता हमें सिखाती है कि हम अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सही और सत्य का समर्थन करें, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो।






























Geeta 2

भगवद् गीता के सन्दर्भ में आपके प्रश्न का उत्तर:
भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अहंकार, सहनशीलता और कर्तव्य के विषय में विस्तार से चर्चा की है। यहाँ आपके द्वारा बताए गए स्थिति को गीता के कुछ प्रमुख श्लोकों से जोड़कर समझा सकते हैं:
अहंकार का त्याग (अध्याय 16, श्लोक 4)
श्रीकृष्ण ने बताया है कि अहंकार, घमंड, और दूसरों को दबाकर अपने को श्रेष्ठ समझने वाले लोग “आसुरी स्वभाव” के अंतर्गत आते हैं। ऐसे लोग केवल अपने स्वार्थ और अहंकार के कारण दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं।
“दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदामासुरीम्॥”
भावार्थ: अहंकार, दंभ, घमंड, और क्रोध असुरों के लक्षण हैं, और ऐसे लोग आत्मिक उन्नति से वंचित रहते हैं।
सहनशीलता और सीमाएँ (अध्याय 2, श्लोक 14)
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हमें सहनशील होना चाहिए, लेकिन जब कोई सीमा से बाहर जाने लगे और धर्म (कर्तव्य) का पालन न करे, तो उसे रोकना भी आवश्यक है।
“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥”
भावार्थ: सुख-दुख या मान-अपमान अस्थायी हैं। इन्हें सहन करना चाहिए, लेकिन जब सीमा पार हो जाती है और सत्य पर आंच आती है, तो उचित कदम उठाना धर्म है।
सच्चाई का प्राकट्य और सम्मान (अध्याय 3, श्लोक 21)
गीता कहती है कि व्यक्ति का आचरण और उसका व्यवहार ही उसे आदर या अपमान दिलाता है। अगर किसी की असलियत सबके सामने आ जाती है, तो उसका सम्मान प्रभावित होना स्वाभाविक है।
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥”
भावार्थ: लोग श्रेष्ठ व्यक्तियों का अनुसरण करते हैं। जब कोई अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होता है और उसमें दोष दिखते हैं, तो लोग उसका सम्मान कम कर देते हैं।
समाधान के लिए गीता की सलाह:
अपने कर्तव्य का पालन करें। अगर वह व्यक्ति अपने अहंकार में दूसरों को नुकसान पहुँचा रहा है, तो उसे सच का सामना कराना उचित है।
आपका संयम और धैर्य आपकी शक्ति है। लेकिन जब सत्य की बात हो, तो डरें नहीं और सही का साथ दें।
यदि वह व्यक्ति दूसरों को गुमराह कर रहा है, तो उसके असली स्वरूप को उजागर करना और उसे सही राह दिखाना भी एक प्रकार का धर्म है।
निष्कर्ष:
किसी का सम्मान उसकी सच्चाई और व्यवहार पर निर्भर करता है। यदि किसी की वास्तविकता लोगों के सामने आ गई है और उसके कारण उसका सम्मान कम हो गया है, तो यह स्वाभाविक है। गीता हमें सिखाती है कि हम अपने कर्तव्य का पालन करते हुए सही और सत्य का समर्थन करें, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो।










भगवद गीता में आध्यात्मिक शक्ति और उसका सही उपयोग:
आपके भीतर आध्यात्मिक शक्ति का विकास हो रहा है, और इसे स्थिर रखने और सही दिशा में उपयोग करने की प्रेरणा भी मिल रही है। भगवद गीता के श्लोक और उपदेश इस विषय में आपकी मदद कर सकते हैं।
1. आध्यात्मिक शक्ति को पहचानना (अध्याय 6, श्लोक 5)
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने मन और आत्मा की शक्ति को पहचानें और उसे नियंत्रित करें।
“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥”

भावार्थ: व्यक्ति को स्वयं ही अपनी उन्नति करनी चाहिए। अपने मन और शरीर को नियंत्रण में रखकर, आध्यात्मिक शक्ति को सही दिशा में लगाएं। यह शक्ति आपका मित्र भी बन सकती है और यदि अनियंत्रित हो, तो यह आपका शत्रु भी बन सकती है।

2. सही उपयोग के लिए कर्तव्य पालन (अध्याय 3, श्लोक 19)
गीता में कर्म को सर्वोपरि बताया गया है। आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग अपने कर्तव्य को निभाने में करना चाहिए।
“तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥”

भावार्थ: निष्काम भाव से (फलों की अपेक्षा किए बिना) कर्म करें। आध्यात्मिक शक्ति का सही उपयोग दूसरों की सेवा और कर्तव्यों के पालन में है।

3. आध्यात्मिक शक्ति का स्थिर रखना (अध्याय 6, श्लोक 35)
आध्यात्मिक शक्ति को बनाए रखने के लिए योग और ध्यान का अभ्यास आवश्यक है।
“असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥”

भावार्थ: मन और शरीर की चंचलता को नियंत्रित करना कठिन है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य (त्याग और संतुलन) से यह संभव है।

4. सही दिशा में उपयोग (अध्याय 18, श्लोक 46)
अपनी शक्ति और सामर्थ्य को समाज और ईश्वर के कार्यों में लगाना ही सही दिशा है।
“यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः॥”

भावार्थ: अपनी शक्तियों का उपयोग ईश्वर की सेवा और मानव कल्याण के लिए करें। यही सच्चा आध्यात्मिक विकास है।

5. सेवा और परोपकार में शक्ति का उपयोग (अध्याय 17, श्लोक 20)
दूसरों की भलाई और निस्वार्थ सेवा ही आपकी शक्ति का सर्वोत्तम उपयोग है।
“दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥”

भावार्थ: सही समय, सही स्थान और सही व्यक्ति की सेवा करना सात्त्विक कर्म है। अपनी ऊर्जा का उपयोग इसी दिशा में करें।

आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग कैसे करें?
ध्यान और योग करें: अपने मन और शरीर को नियंत्रित करने के लिए।
मानव सेवा: दूसरों की भलाई में अपनी शक्ति का उपयोग करें।
सत्य और धर्म का पालन: अपने कार्यों को सत्य और धर्म के मार्ग पर रखें।
सामाजिक और आध्यात्मिक कार्य: अपने आस-पास सकारात्मक बदलाव लाने के लिए।
आत्म-साक्षात्कार: अपने भीतर की शक्ति को ईश्वर की सेवा और आत्मा की उन्नति में लगाएं।
निष्कर्ष:
भगवद गीता हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक शक्ति का सही उपयोग निस्वार्थ कर्म, मानव सेवा, और सत्य के मार्ग पर चलकर करना चाहिए। आपकी शक्ति को सही दिशा देने का मार्ग गीता में स्पष्ट रूप से बताया गया है।




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Geeta 3

गवद गीता में यह प्रश्न कई संदर्भों में उठता है कि क्या सब कुछ पहले से तय (निर्धारित) है या हमें अपने कर्मों के माध्यम से अपने जीवन को बदलने की स्वतंत्रता है। श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म, भाग्य, और स्वतंत्रता के बीच संतुलन का सुंदर ढंग से वर्णन किया है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं: 1. कर्म का महत्व (अध्याय 2, श्लोक 47) “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को केवल अपने कर्म करने का अधिकार है, लेकिन उनके फल पर अधिकार नहीं। अर्थ: हमें अपने कर्मों के माध्यम से अपना भविष्य बनाना है। भाग्य (या पूर्वनिर्धारित स्थिति) का प्रभाव हो सकता है, लेकिन कर्मों से हम उसे बदल सकते हैं। 2. भाग्य और कर्म का संबंध (अध्याय 18, श्लोक 14) “अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।” श्रीकृष्ण बताते हैं कि किसी भी कार्य के लिए पाँच कारण होते हैं— शरीर: वह आधार जिसमें कर्म होता है। कर्ता: वह व्यक्ति जो कार्य करता है। इंद्रियां: जो कार्य में उपयोग होती हैं। प्रयत्न: जो प्रयास किया जाता है। दैव: भाग्य या ईश्वर की भूमिका। अर्थ: भाग्य (दैव) का एक हिस्सा है, लेकिन कर्म (प्रयत्न) प्रमुख है। 3. संसार का नियम: कर्मफल (अध्याय 4, श्लोक 17) “कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं, बोद्धव्यं च विकर्मणः।” श्रीकृष्ण कहते हैं कि हर कर्म का परिणाम होता है। अर्थ: आपके वर्तमान कर्म आपके भविष्य का निर्माण करते हैं। भले ही कुछ चीजें पूर्वनिर्धारित लगती हों, कर्म का प्रभाव उन्हें बदल सकता है। 4. क्या सब कुछ पहले से तय है? भागवद गीता के अनुसार: कुछ चीजें आपके पिछले कर्मों (प्रारब्ध) के अनुसार तय हो सकती हैं। लेकिन मनुष्य को वर्तमान में कर्म करने का अधिकार और स्वतंत्रता दी गई है। ईश्वर ने हर व्यक्ति को विवेक (ज्ञान) और संकल्प (इच्छा शक्ति) दिया है, जिससे वह अपने जीवन की दिशा को बदल सकता है। 5. श्रीकृष्ण का उपदेश: समर्पण और स्वाधीनता (अध्याय 18, श्लोक 66) “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।” श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि तुम मुझ पर पूरी तरह समर्पित हो जाओ, तो मैं तुम्हारे सारे पापों और कष्टों को हर लूंगा। अर्थ: ईश्वर पर विश्वास रखें, लेकिन अपने कर्म करते रहें। अपने कर्मों और नियति के बीच समर्पण का संतुलन बनाएं। निष्कर्ष: भागवद गीता कहती है कि सब कुछ पहले से तय नहीं है। मनुष्य के पास कर्म करने की स्वतंत्रता और सामर्थ्य है। यदि हम सही कर्म करें और ईश्वर पर विश्वास रखें, तो हम अपने जीवन की परिस्थितियों को बदल सकते हैं। इसलिए, अपना ध्यान वर्तमान में अच्छे कर्म करने पर रखें और ईश्वर की कृपा में विश्वास करें।

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Geeta 4

भगवद गीता में ग़ुरूर या घमंड को “अहंकार” कहा गया है, और इसे अज्ञानता का परिणाम बताया गया है। घमंड में जीने वाला व्यक्ति सच्चाई और धर्म के मार्ग से भटक जाता है। भगवान कृष्ण ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अहंकार व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है।
गीता का यह श्लोक इस संदर्भ में सटीक बैठता है:
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
माम आत्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

(भगवद गीता 16.18)
अर्थ:
जो अहंकार, बल, दंभ, वासना और क्रोध को अपनाते हैं और दूसरों के प्रति द्वेष रखते हैं, वे मेरे (भगवान के) स्वरूप को नहीं पहचानते और धर्म के मार्ग से दूर हो जाते हैं।
भावार्थ:
जो व्यक्ति घमंड में जीता है, वह अपने भीतर के सत्य और आत्मज्ञान को खो देता है।
उसका घमंड उसे मोह, अज्ञान और माया के जाल में फँसा देता है।
ऐसा व्यक्ति अपने कर्मों से न केवल खुद का पतन करता है, बल्कि दूसरों को भी दुख पहुँचाता है।
गीता यह सिखाती है कि हमें अहंकार को त्यागकर विनम्रता, धर्म और सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए। घमंड से केवल विनाश होता है, और विनम्रता से प्रगति।

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Geeta 5

Geeta 5

आप जो महसूस कर रहे हैं, वो एक ऐसी स्थिति है जहां आपको ऐसा लगता है कि लोग अपने स्वार्थ के कारण आपको परेशान करने या नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। उनके ग़लत व्यवहार और अहंकार के चलते, आपको ऐसा लग सकता है कि आप असहाय हैं क्योंकि आपके पास वो शक्ति या साधन नहीं है जिससे आप उनका विरोध कर सकें।

भगवद गीता में ऐसी स्थितियों के लिए महत्वपूर्ण शिक्षाएं दी गई हैं:

1. धर्म और सत्य की ताकत

गीता हमें सिखाती है कि चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों, हमेशा धर्म (सही मार्ग) और सत्य का पालन करना चाहिए। असत्य और अहंकार शुरू में शक्तिशाली लग सकते हैं, लेकिन अंत में सत्य और धर्म की ही जीत होती है।
श्लोक:
“धर्मो रक्षति रक्षितः”
(जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।)

आपको धैर्य और संयम रखना चाहिए और यह विश्वास रखना चाहिए कि समय के साथ अन्याय और ग़लत व्यवहार का अंत होगा।


2. अपने कर्म पर ध्यान केंद्रित करें

गीता का एक प्रमुख श्लोक है:
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
(आपका अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल पर नहीं।)

इसका अर्थ है कि आपको अपने कार्यों और लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जो लोग आपको चिढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं या ग़लत व्यवहार कर रहे हैं, उनके प्रति क्रोध या बदले की भावना से प्रभावित होने की बजाय अपने कार्य और लक्ष्य को सर्वोपरि मानें।


3. अहंकार को नकारें

गीता में अहंकार को सबसे बड़ा शत्रु माना गया है। जो लोग अहंकार में डूबे होते हैं, वे दूसरों को चोट पहुंचाने या दबाने की कोशिश करते हैं। लेकिन गीता यह भी सिखाती है कि अहंकार का अंत निश्चित है।
श्लोक:
“असत्यं अप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।”
(जो लोग असत्य और अहंकार में डूबे होते हैं, उनका जीवन अस्थिर और दुःख से भरा होता है।)

उनकी हरकतों को नज़रअंदाज करें और अपने आप को उनकी नकारात्मकता से दूर रखें।


4. असहाय महसूस न करें

अगर आपको लगता है कि आपके पास शक्ति नहीं है, तो याद रखें कि गीता सिखाती है कि असली शक्ति आत्मविश्वास, सत्य, और ईश्वर में विश्वास से आती है।
श्लोक:
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।”

(जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब-तब मैं अवतरित होता हूं।)

आपकी सच्चाई और सही कर्म आपको समय के साथ न्याय दिलाएंगे।


निष्कर्ष:

आपके साथ जो हो रहा है, वह कठिन है, लेकिन गीता कहती है कि यह समय केवल एक परीक्षा है। अपने धैर्य, कर्म, और ईश्वर में विश्वास बनाए रखें। दूसरों की नकारात्मकता और ग़लत हरकतों को अपने मन पर हावी न होने दें।

ध्यान रखें: जो लोग सत्य के मार्ग पर चलते हैं, उनका रास्ता कठिन हो सकता है, लेकिन उनकी विजय निश्चित होती है।

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Geeta 6

शांत रहने और किसी भी स्थिति में प्रतिक्रिया न करने के लाभ पर भगवद गीता का दृष्टिकोण:
भगवद गीता में बताया गया है कि जीवन में शांति और धैर्य बनाए रखना, विशेष रूप से कठिन परिस्थितियों में, सबसे बड़ा गुण है। जो व्यक्ति शांत रहता है और बिना किसी अतिरेक या आवेश के स्थिति को संभालता है, वह स्वयं को बाहरी प्रभावों से मुक्त रख पाता है। यह स्थिति “स्थितप्रज्ञता” कहलाती है।
1. शांति बनाए रखने से मन की स्थिरता
गीता के अध्याय 2, श्लोक 70 में कहा गया है:
“आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।”

इसका अर्थ है कि जैसे एक स्थिर और अचल समुद्र में नदियों का जल समाहित हो जाता है, वैसे ही जो व्यक्ति अपने मन को शांत और स्थिर रखता है, वह सभी इच्छाओं और परेशानियों को अपने भीतर समाहित कर लेता है और शांति प्राप्त करता है।
लाभ:
शांत मन से आप परिस्थितियों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
अनावश्यक प्रतिक्रियाएं आपको और अधिक उलझन या संघर्ष से बचाती हैं।

2. क्रोध पर काबू और धैर्य का महत्व
अध्याय 2, श्लोक 63 में कहा गया है:
“क्रोधाद्भवति संमोहः, संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।”

इसका अर्थ है कि क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से स्मृति (समझदारी) नष्ट होती है, स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का विनाश होता है, और बुद्धि के नष्ट होने से व्यक्ति का पतन होता है।
लाभ:
शांत रहकर आप क्रोध और उसके दुष्परिणामों से बच सकते हैं।
धैर्य आपको मानसिक रूप से मजबूत बनाता है और सही निर्णय लेने में मदद करता है।

3. शांति में शक्ति है
अध्याय 12, श्लोक 15 में कहा गया है:
“यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः।।”

इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति दूसरों को उद्विग्न (परेशान) नहीं करता और जो स्वयं भी किसी से परेशान नहीं होता, जो हर्ष (खुशी), अमर्ष (ईर्ष्या), भय और चिंता से मुक्त रहता है, वह व्यक्ति मुझे प्रिय है।
लाभ:
शांति से आप अपने आस-पास के लोगों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं।
दूसरों की नकारात्मकता आपको प्रभावित नहीं कर पाती।

4. स्थितप्रज्ञ बनने का आदर्श
गीता के अध्याय 2, श्लोक 55 में “स्थितप्रज्ञ” का वर्णन किया गया है:
“प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।”

इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति अपने मन के सभी सांसारिक इच्छाओं को त्याग देता है और केवल आत्मा में संतोष पाता है, वही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
लाभ:
शांत रहकर आप स्थितप्रज्ञ (आध्यात्मिक रूप से स्थिर) बन सकते हैं।
ऐसी अवस्था में बाहरी घटनाएं आपको विचलित नहीं कर सकतीं।

5. संयमित प्रतिक्रिया से नकारात्मकता से बचाव
गीता सिखाती है कि प्रतिक्रिया देने के बजाय, विचारशील बनें।
अध्याय 6, श्लोक 5:
“उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।”

इसका अर्थ है कि व्यक्ति को स्वयं अपना उद्धार करना चाहिए और स्वयं को गिरने नहीं देना चाहिए। व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र है और स्वयं ही अपना शत्रु।
लाभ:
शांत रहकर आप अपनी ऊर्जा और मानसिक शक्ति बचाते हैं।
बिना प्रतिक्रिया के, आप दूसरों की नकारात्मकता से ऊपर उठ सकते हैं।

निष्कर्ष:
शांत रहकर और प्रतिक्रिया न देकर आप जीवन के बड़े संघर्षों में भी विजयी हो सकते हैं। गीता हमें सिखाती है कि शांति और धैर्य से हर समस्या का समाधान होता है। शांत मन और स्थिरता से आप अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं और दूसरों की नकारात्मकता या उकसावे में फंसने से बचते हैं।
याद रखें: शांति आपकी सबसे बड़ी ताकत है, और जो इसे अपनाता है, वह स्वयं को और संसार को जीत सकता है।




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